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रुद्राष्टक का हिंदी में अर्थ


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 नमामीशमीशान निर्वाणरुपं ।                                           विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदस्वरूपं।।                                             निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं।                                          चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहं।।                                                                                                                              हे मोक्ष स्वरुप , विभु , व्यापक , ब्रह्म और वेद स्वरुप , ईशान दिशा के ईश्वर तथा सबके स्वामी श्री शिव जी ! हम आपको नमस्कार करते हैं। हे निज स्वरूप में स्थित (माया से रहित), गुणों से रहित, भेद रहित, इच्छारहित, चेतन, आकाशरूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर (आकाश को भी आच्छादित करने वाले) आपको हम भजते हैं।

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं।                                                गिरा ग्यान गोतीतमीशं गिरीशं।।          ‌‌ ‌‌                              करालं महाकाल कालं कृपालं।                                        गुणागार संसारपारं नतोऽहं।।       

जो निराकार है, ओंकार के मूल है , तुरीय (तीनों गुणों से युक्त) है, वाणी , ज्ञान और इन्द्रियों से परे है , जो  विकराल , महाकाल के भी काल हैं , कृपालु , गुणों के सागर हैं , संसार से परे है उन परमेश्वर ,महादेव को हम नमस्कार करते हैं।।

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं।                                            मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरं।।                                          स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गंगा।                                    लसद्भालबालेन्दु कंठे भुजंगा।।

जो हिमालय के समान गौरवर्ण तथा गम्भीर है , जिनके शरीर में करोंड़ों कामदेवों की ज्योति और शोभा है , जिनके , सिर पर पवित्र नदी गंगा जी विराजमान हैं , जिनके मस्तक पर द्वितीया का चन्द्रमा और गले में सर्प सुशोभित है ।।

चलत्कुंडलं भ्रू सुनेत्रं विशालं।                                               प्रसन्नाननं नीलकंठं दयालं  ।।                                         मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं ।                                            प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ।।

जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे है ,  जिनके सुन्दर भ्रकुटी और विशाल नेत्र हैं , जो प्रसन्न मुख , जो नीलकंठ और दयालु हैं , जिन्होंने सिंह चर्म वस्त्र और मुण्डमाला धारण किया हुआ हैं , जो सबके प्रिय और सबके नाथ(सबका कल्याण करने वाले) उन श्री शंकर जी को हम भजते हैं ।।

प्रचंडं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं ।             ‌                                  अखंडं अजं भानुकोटि प्रकाशं।।                              ‌           त्रय: शूल निर्मूलनं शूलपाणिं ।                                              भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यं ।।

जो रुद्र स्वरूप है, प्रचण्ड है , श्रेष्ठ है , महान तेजस्वी परमेश्वर है, जो अखण्ड , अजन्मा और करोंड़ों सूर्य के प्रकाश वाले हैं , जो तीनों प्रकार के दुखों का अंत करने वाले हैं , जो हांथ में त्रिशूल धारण किए हुए हैं , भवानी जी के पति उन श्री शंकर जी को हम श्रद्धा पूर्वक भजते हैं।।

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी ।                                     सदा सच्चिदानंददाता पुरारी ।।                       ‌                चिदानंद संदोह मोहापहारी ।   ‌                                         प्रसीदं‌ प्रसीदं प्रभो मन्मथारी ।।

कलाओं से परे  , कल्याण स्वरूप , कल्प का अंत करने वाले, सज्जनों को सदा ही आनंद देने वाले हैं , त्रिपुर के शत्रु है , हे प्रभु ! प्रसन्न होइए प्रसन्न होइए ।।

न यावद् उमानाथ पादारविन्दं ।                                        भजंतीह लोके परे वा नराणां ।।                                              न तावत्सुखं शान्ति सन्तापनाशं ।                                        प्रसीदं प्रभो सर्वभूताधि्वासं ।।

हे पार्वती जी के पति जब तक मनुष्य आपके चरण कमलों को नहीं भजते हैं , तब तक उन्हें न तो इस लोक में और न ही परलोक में कहीं भी सुख शांति नहीं मिलती और न ही उनके तापों को नाश होता है। इसलिए हे समस्त जीवों के हृदय में वास करने वाले प्रभु आप प्रसन्न होइए।।

न जानामि योगों जपं नैव पूजाओं ।                                    नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यं ।।                                        जरा जन्म दु:खोद्य तातप्यमानं ।                                          प्रभो पाहि आपन्नमामीश शंभू।।।

न तो हम योग जानते हैं और न ही जप न पूजा जानते हैं , हे  महादेव हम तो सदा सर्वदा आपको नमस्कार करते हैं । हे महादेव ! बुढ़ापे और जन्म मरण के दुखों से जलते मुझ दुःखी की रक्षा करिए , हे ईश्वर ! हम आपको नमस्कार करते हैं ।।

श्लोक- रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये ।                           ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भु: प्रसीदति ।।

भगवान रुद्र की स्तुति का यह अष्टक उन शंकर जी की प्रसन्नता के लिए ब्रह्म जी द्वारा कहा गया है । जो मनुष्य इसे भक्ति पूर्वक पढ़ते हैं , उन पर भगवान शम्भु प्रसन्न होते हैं ।।              

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